ankita awasthi

नारी

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, पढ़ने में लगता है अच्छा 
पर क्या वास्तविक अर्थो में है ये सच्चा 
कवियों ने दर्शाये नारी के कई रूप 
कही सुंदरता तो कही गुणों के वर्णन अनूप 
अनेक गाथाओ से भरा है नारी गौरव का इतिहास 
सुनकर जिसे होता है अनुपम उत्साह का एहसास 
पर क्या यही है वास्तविकता या सिर्फ बातें किताबो की 
कहने को तो ये सदी है इक्कीसवी 
पर क्या बदली है नारी की तस्वीर ज़रा भी 

कहते है ये सदी है नवचेतना की 
पर क्या देखि है दयनीय  हालत वनिता की 
आज भी नारी पर होते है अत्याचार 
कभी घर तो कभी समाज के जुल्मो की  शिकार 
बनकर बेटी, पत्नी, बहन और माँ अपना कर्तवय निभाती है 
ससुराल और मायके की चक्की में घुन की तरह पिसती जाती है 
कभी कही नै चलती उसकी मर्ज़ी 
मायके में पिता तो ससुराल में पति को देती है अपनी इच्छाओ की अर्ज़ी 


नारी तू कभी पुरुष नहीं हो सकती 
अपने ममत्व से भरे हृदय को कठोर नहीं कर सकती 
चाहे कोई लाख दुःख दे तुझे 
फिर भी मोह रूपी धागे को तू तोड़ नै सकती 
भले ही कितना पढ़ लिख ले तू नारी 
भले ही कितना बन सवार ले तू नारी 
पौरुष के आगे सदैव तू अबला ही है नारी 
आत्मसम्मान को कुचलकर झुककर दबकर रहना सिख  ले तू नारी