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भाषा की आज़ादी

हम आज़ाद भारत के बाशिंदे हैं।
अंग्रेजों को गए कई दशक बीत गए
पर अंग्रेजी अब भी ज़िन्दा है।
हिन्दी व अन्य स्थानीय भाषाओं पर
राज उसका अब भी कायम है।
हिन्दी शासकीय भाषा है।
स्थानीय भाषायें भी धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहीं।
लोकसभा में स्थानीय भाषा इस्तेमाल पर रोक नहीं।
तमिल बोलते सांसद
भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का संकेत हैं।
फिर कम्प्यूटर पर अपनी भाषा में लिखना
इतना मुश्किल क्यूं है?
इस कम्प्यूटर के युग में
क्या ये हमारे साथ अन्याय नहीं?
क्यूं हम इस पर कुछ बोलते नहीं?
क्यूं इस पर कोई कुछ लिखता नहीं?
कौन करेगा न्याय?
कब खत्म होगा ये अन्याय?
क्योंकि न्यायपालिका पर शासन अब भी अंग्रेजी का है,
अन्य किसी भाषा के इस्तेमाल पर यहाँ
सख्त चेतावनी मिलती है।
ये अभिव्यक्ति की कैसी आज़ादी है?
अपनी भाषा में बोलने को स्वतंत्र सांसद,
क्यूं इस पर कुछ बोलते नहीं?
क्यों इस अन्याय को रोकने वाला
सशक्त कानून लाते नहीं?
ऐसे में अपनी बोली बोलना
सिर्फ एक दिखावा है।
गंगा जमुना सरस्वती
कावेरी नर्मदा ब्रह्मपुत्रा
इनको हम पूजते हैं।
हमारी संस्कृति हमारी भाषाओं से है!
फिर हमारी भाषायें यूं उपेक्षित क्यूं हैं?
क्यूं न्यायपालिका में इनके इस्तेमाल पर पाबंदी है?
विभिन्न राज्यों व  केन्द्रशासित प्रदेशों में
स्थानीय भाषा में अभिव्यक्ति की आज़ादी है।
हर प्रदेश में स्थानीय भाषा को
प्रोत्साहन व प्राथमिकता है।
घरों में, मोहल्लों में,
दोस्तों और रिश्तेदारों में,
रीति-रिवाजों और त्योहारों में,
शादियों और पार्टियों में -
हमारी बोली हमारी पहचान है।
हमारी पहली पसंद है।
हमारी संस्कृति की नींव इससे है।
ऐसे में क्यों न्यायपालिका के दरवाजों पर
यह स्वतंत्रता हमसे छीन ली जाती है?
ये कैसा न्याय है जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं?
क्यों कानून के गलियारों में
स्थानीय भाषा का विद्वान भी
अंग्रेजी पर निर्भर है?
क्यों आजाद भारत में न्याय
अंग्रेजी पर निर्भर है?
क्यों संसद भवन की भांति
यहाँ भी अपनी भाषा बोलने को हम स्वतंत्र नहीं?
क्यों अब भी हमारा कानून
अंग्रेजी के अधीन है?
जेलों में बंद सत्तर फीसदी लोग
अनपढ़ या दसवीं पास हैं।
क्या इनमें से कई का अपराध
अंग्रेजी न आना था?
आजादी के सत्तर वर्षों बाद भी
इन लोगों की आज़ादी
अंग्रेजी पर निर्भर है।
क्यों हमारे कानूनों का अनुवाद
हमारी भाषाओं में होता नहीं?
क्या आईने में देख
हमें शर्म महसूस होनी चाहिए?
हमारे देश और इसकी मिट्टी,
हमारी संस्कृति, हमारे रीति रिवाज -
इनका अपमान हमें कतई बर्दाश्त नहीं।
फिर हमारी भाषायें
आज भी यूं अपमानित क्यूं हैं?
न्यायपालिका की सक्रियता ने
कई बार गैरसंवैधानिक फैसलों और कानूनों से
देश को बचाया है।
हमारी भाषाओं की स्वतंत्रता पर भी
न्यायपालिका या संसद में
आज फैसला करना होगा।
अन्यथा जन जन को
इसके लिए आवाज उठानी होगी।
आजादी की एक और लड़ाई लड़नी होगी!