मेरे कमरे में एक खिड़की खुली ही रहती है
सर्द मौसम में वो शबनम से धुली रहती है
कहने को तो वो एक खिड़की है
और कुछ भी नहीं
हवा के साथ थोड़ी रोशनी है
और कुछ भी नहीं
मगर कैसे कैसे रंगों को वो दिखाती है
मुझे वो चांद और तारों से भी मिलाती है
कभी जब रात को यूं ही उठ कर बैठता हूं
पास के पेड़ों की संगीत वो सुनाती है
मेरी तन्हाई को झोंको के साज़ देती है
मेरी ग़ज़लों के हर लफ्ज़ को आवाज़ देती है
उसके होने से मुझे आसमान दिखता है
मुझे कमरे से ये सारा जहान दिखता है
न जाने कितने नए सूरज वहां निकलते हैं
और फिर शाम होते ही वहीं पर ढलते हैं
फिर रात होते ही तारों की फौज आती है
साथ अपने कितने ही मौज लाती है
मैं चुपचाप वहीं से आसमान पे नज़र फेरता हूं
लाल,नीला,और फिर मध्यम होते देखता हूं
हवाएं आती हैं उस खिड़की से गुनगुनाती हैं
मुझे वो लोरियां गा-गाकर फिर सुलाती हैं
कोई भी वक्त हो ये मायूस नहीं होने देती
ये खिड़की मुझे कभी तन्हा नहीं होने देती l
अनमोल