आख़िरी मुलाक़ात
~ दीपक वोहरा
कहानी ने ऐसा मोड़ लिया
मैं तुमसे जुदा हुआ
और तुमने नाता तोड़ लिया।
प्यार—झूठा,
बस एक दिखावा।
सच्चाई, ईमानदारी, अच्छाई—
सब बेकार हैं
जब पास न पैसा हो,
न रुतबा,
न कोई ठिकाना।
सच कड़वा है;
दिल को नहीं छूता
जब तक झूठ की चाशनी न मिले।
थोड़ा दूर क्या गया—
रिश्ते बदल गए।
जो कल अच्छे थे,
आज बुरे हो गए।
तुम्हारी एक झलक पाने को
न जाने क्या-क्या किया।
शायद मेरी तड़प ही अधूरी थी,
वरना तुम दूर न होतीं।
सूरज भी शाम को
डूबते हुए डरता है,
पर नए दिन
फिर लौट आता है।
हमारे दिन भी लौटेंगे—
कभी न कभी।
अब मुझमें दिलचस्पी नहीं—
ठीक है।
तुम कहीं और व्यस्त हो—
ये भी ठीक।
पर मैं तुम्हें चाहता रहूंगा
उसी तरह
जैसे अब तक चाहता आया हूँ।
क्या कुछ रोज़ में मिलोगी?
बस तुम्हारी एक झलक लेकर
फिर दूर चला जाऊंगा,
तुम्हारे नाम के सहारे
ज़िंदगी बिताने।
तुम्हें पाने की चाहत
अब दिल में दफ़न है।
शायद जब तुम मुझे ढूंढोगी,
मैं बहुत दूर होऊंगा—
एक आख़िरी तस्वीर को लिए हुए।
तुम्हारी आवाज़,
तुम्हारी बेरुख़ी,
तुम्हारी झिझक,
एक झलक—
एक तस्वीर—
सब ताउम्र दिल में रखूंगा,
अपनी किसी प्यारी कविता की तरह।
आख़िरी मुलाक़ात
अपने दिल में हमेशा के लिए।