ये मैं ही था जो यहां सपने कोई सजा न सका
इस बड़ी दुनिया में छोटा सा घर बना न सका
ये ग़ज़ल लिख दी है मैने कि क्या मैं करता दोस्त
दिखा घाव न सका और कभी छुपा न सका
लगा मैं लिखने यूं खत अपने आप को भुला के
याद कर भी न सका और उसे भुला न सका
इस तरह उजड़ी है क्यों दिल की ये मेरी दुनिया
कि तेरे बाद मैं दिल को कहीं लगा न सका
बात जो उससे छुपानी थी कह दी आंखों ने
राज़ मैं कह न सका और फिर छुपा न सका
मैं यूं आवारा फिरा हूं जुदाई में तेरे
घर में रह भी न सका और घर बसा न सका
इस तरह से क्यों ये पत्थर हुआ है दिल मेरा
सिवा तेरे कोई ये दिल कभी दुखा न सका
सहा है मैने भी सदमे को इस तरह \'अनमोल\'
ज़ब्त भी कर न सका और फिर भुला न सका
अनमोल