जाने मैं हयात के कैसे सफ़र में हूं
रस्ते हैं खुरदरे से ऐसी डगर में हूं
अक्सर मैं गुनाह से रखता हूं खुद को दूर
देखे या नहीं मैं पर उसकी नज़र में हूं
चाहे वो रखे मुझे अपनी नज़र से दूर
मैं दिल में हूं उसके, उसके जिगर में हूं
उमरें हो गई हैं उठाए हुए साग़र
पर आज तलक मैं उसके असर में हूं
यारों से भी मैं तो रखता हूं दूरी
जाने मैं ज़माने की कैसी लहर में हूं
मुझको नहीं भूला है वो बिछड़ के भी
मैं शाम में हूं कभी उसकी सहर में हूं
मर के भी चमकता हूं मैं तो फलक पर अब
मैं सूरज में हूं, कभी मैं क़मर में हूं
अनमोल