प्रकृति का संतुलन ना बिगड़ने पाए

uglykavi

बढ़ती आबादी सबकी बर्बादी
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
काले धन का प्रलोभन
बढ़ता व्यापार घटता सदाचार
बेकार के समाचार
बेकारी बदहाली बिमारी
बढ़ती विलासिता घटती सभ्यता
बढ़ता रोग घटता योग
बढ़ता विज्ञान घटता ज्ञान
मज़बूत मशीनें कमजोर लोग
बढ़ती संपन्नता बढ़ती गरीबी
बढ़िया मकान घटिया मानस
बढ़ती नग्नता घटती चरित्रता
बढ़ती आपदा घटती प्राकृतिक संपदा
घटती शिक्षा बढ़ती असामाजिकता
बढ़ती आपराधिकता घटती वैचारिकता
बढ़ते मूल्य घटती मूल्यता
बढ़ती बिमारियां बढ़ती दवाईयां
बढ़ती दुर्घटनाएँ घटती सुरक्षा
बढ़ते मूल्य बढ़ते खर्च
घटती मूल्यता घटती बचत
बढ़ती जानकारी घटती कार्यक्षमता
बढ़ता भोग बढ़ता ढोंग
बढ़ता यातायात घटता पारिवारिक वक्त
बढ़ती सोच घटती कार्यकुशलता
बढ़ता धर्म घटता कर्म
बढ़ता इतिहास घटता विकास
बढ़ता मनोरंजन घटती खुशहाली
बढ़ती निजता घटती सरलता
बढ़ता अत्याचार घटता विचार
बढ़ता उपभोग घटता उद्योग
बढ़ता काम घटता आराम
बढ़ते झगड़े घटते रिश्ते
बढ़ते कुविचार घटते सुकर्म
बढ़ती व्यय घटती आय
बढ़ता अहम घटता दम
बढ़ते विकार घटते विचार
बढता पैसा घटती सोच
बढ़ता काम घटता दाम
घटती प्रजातियाँ बढ़ती विकृतियाँ
घटते बढ़ते
बढ़ते घटते
बढ़ते बढ़ते
घटते घटते
प्रकृति का संतुलन ना बिगड़ने पाए
सर्वनाश की नौबत ना आए
प्रकृति से हम हैं
हमसे प्रकृति नहीं।

  • Author: uglykavi (Offline Offline)
  • Published: March 9th, 2023 22:21
  • Comment from author about the poem: I wrote this poem probably in 2017 and it sat there as a work in progress. Publishing as is to highlight some of the issues we face as a society and a species.
  • Category: Sociopolitical
  • Views: 2
Get a free collection of Classic Poetry ↓

Receive the ebook in seconds 50 poems from 50 different authors




To be able to comment and rate this poem, you must be registered. Register here or if you are already registered, login here.