ठंड मार शीत बाण हाड़ जो कँपा रही..स्वनाम जो जपा रही

search of life

रगण जगण रगण जगण रगण 

२१ २१ २१ २१ २१ २१ २१२

ठंड मार शीत बाण हाड़ को कँपा रही।

 

  पाप क्या किया बता स्वनाम जो जपा रही ।।

 

   प्रीत मीत मानके न वैर भावना रखा।

 

   ठंड दंड ताड़ना अमानना नहीं लखा।।

 

  रोग भोग भी लिया न मौन भंग ही किया। 

 

  वेग से प्रवेग से समीर क्यों बहा दिया।।

 

  प्राण घ्राण सर्प सा नहीं सुनो करो कभी।

 

  क्रोध का प्रमाण शोध ना करा मुझे अभी।।

 

 रार वार जो ठना विकल्प कल्प ही नहींं।

 

   ऊन चीर ओढ़के डरा नहींं डटा यहींं।।

 

   चाप साध ठंड तू अबाध जीत चाह में।

 

   मार्ग में सदा खड़ा अगाध प्रीत थाह में।। 

 

 

 

कठिन शब्दार्थ प्रशिक्षु छंद प्रेमियों के लिए :-

 

कल्प-ऐसी चिकित्सा जिसमें शरीर या उसके किसी अंग को पुनः नया व निरोग करने की युक्ति हो।

 

घ्राण-सूँघना

 

अमानना-अपमान

 

लखना-देखना,समझना,जानना,मानना

 

प्रवेग- अत्यंत तेजी से

 

प्रमाण-सिद्ध,साक्ष्य,सबूत

 

शोध- अनुसंधान(रिसर्च)

 

रार-लड़ाई,झगड़ा

 

ठनना-छिड़ना,निश्चित होना।

 

अबाध-निरंतर,लगातार,बाधाहीन,स्वच्छंद,निर्बाध

 

अगाध-असीम,अथाह,जिसे समझना कठिन हो।

  • Author: search of life (Offline Offline)
  • Published: January 5th, 2025 02:40
  • Comment from author about the poem: धननयवाद
  • Category: Unclassified
  • Views: 7
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