कुछ अब ताज़े गुल खिलते देख रहा हूँ
ख़ामोशी से तुझको बदलते देख रहा हूँ
कलियाँ सी खिलती देखीं थीं जिन होठों पर
अब ज़हर ही उनको उगलते देख रहा हूँ
तब जिनसे हम दूरी रखते थे बनाए
तुमको यहां में वहीं ढलते देख रहा हूँ
पलकों पे सजा रखे थे कुछ ख़्वाब अधूरे
अब उन्ही से खुद को बिछड़ते देख रहा हूँ
जिनको मैं दफन कर रखा था सीने में अपने
उन ख्वाबों को पलकों पे पलते देख रहा हूँ
जिनसे कभी कतराते मैं देखा किया था
तुमको उसी राह मैं चलते देख रहा हूँ
जो धड़कता था पहले तेरा नाम ले लेकर
अब उस दिल को मैं संभलते देख रहा हूँ
नए से कुछ ज़ख्म उभरने लगने लगे हैं
अब ज़ख्म पुराने भरते देख रहा हूँ
जिन रिश्तों से रौशन थे मेरे घर की हर एक शय
अब हाथों से उनको निकलते देख रहा हूँ
तब ज़्यादा तपिश भी रिश्ते की ठीक नहीं थी
अब बर्फ मैं इनकी पिघलते देख रहा हूं
मेरे ही ख्वाब से रोशन थी जो नज़रें
क्यों उनमे खुद को खलते देख रहा हूँ
अनमोल
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Author:
Anmol (Pseudonym) (
Online)
- Published: September 17th, 2025 06:02
- Category: Love
- Views: 1
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