हम वाकिफ थे बनाओगे ना अपना मुझको
यूं ही दानिस्ता फिर भी है चाहा तुझको
कोई उम्मीद नहीं रखी थी मैंने उससे
जाने क्यों फिर भी वो भूल गया है मुझको
उसके बाद नहीं उल्फत में बाकि अब कुछ
वो एक मंज़र जब जाते हुए देखा तुझको
तुझसे मिले हुए एक ज़माना है बीता हमको
बारहां मैंने तो महसूस किया है तुझको
सोचता हूँ कि कैसे चैन से सोता होगा ?
अक्सर रातों को जिसने है जगाया मुझको
जो भी मिलता है अपनी राय बना लेता है
तूने ये कैसा ये तमाशा बना दिया मुझको
अच्छा है जो तुझसे जुदा हो ही चुके अब हम
अब इस तरह से तो मैने है पा लिया मुझको
क़ुर्बत में मैं तो कहां पहचाना कभी तुझको
हम जब बिछड़े तब जा के है जाना तुझको
अब नहीं है मुझमें खोने की हिम्मत तुझको
हमने खोया तो है सब,फिर है पाया तुझको
फिर अब इस धड़कन पे हमारा कहां बस चलता?
जब से तूने मुड़कर कल यूं देखा मुझको
अनमोल
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Author:
Anmol (Pseudonym) (
Online)
- Published: September 21st, 2025 19:14
- Category: Unclassified
- Views: 8
- Users favorite of this poem: Priya Tomar
Comments2
Jabab nhi !
बेहतरीन
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