खुद की कैद

uglykavi

कुरीतियों के आगे,
अन्याय के सामने,
बेबस मत दिखिए।
आँखें मत मूंदिए,
खुली आँखों से
अनदेखा मत कीजिए।
भीड़ से अलग दिखिए।
मुर्दा मत दिखिए।
मूक बधिर दृष्दीहीन
मत बनिए।
जिंदा नजर आइए।
नकल मत कीजिए।
अकल से कीजिए।
खुद को जानिए पहचानिए।
अपनी पहचान बनाइए।
धर्म नैतिकता कहते हैं -
करके दिखाइए।
अपने पे गुजरती है -
पीड़ा होती है।
पीड़ा दिखती है।
पीड़ा समझिए -
दूसरे की भी।
सिर्फ खुद ही खुद की
दवा मत कीजिए।
हारिए मत,
ऊपर उठिए।
संघर्ष पीड़ादायी है।
जीत सुखदायी है।
सब कुछ अस्थाई है।
अनवरत प्रयासों से
मुकाम हासिल होते हैं।
साम दाम दंड भेद,
ऐन केन प्रकारेण,
जीत हासिल होती है।
कितने आपने किए?
विचार कैद होते नहीं।
खुद को कैद मत कीजिए।
मुकाम की तरफ बढ़िए।

  • Author: uglykavi (Offline Offline)
  • Published: October 8th, 2024 21:38
  • Comment from author about the poem: हम अपने ही बनाए पिंजरे में कैद हैं और ये सबके लिए दुखदायी है। Hindi Poem about Moral imprisonment. We are in a cage! The cage is determined by us only. We need to break free! This is a poem to liberate the human spirit within us. Please wait for the English translation. My English is not as good. So, please understand. Thanks.
  • Category: Sociopolitical
  • Views: 7
  • Users favorite of this poem: bhagwandas
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