जात पात को लेकर यहाँ है जीते
धर्म के नाम पर रोज़ है मरते,
किसने बनायीं है ये रीत न्यारी,
क्यूँ लगती है जात अपनी सबको प्यारी,
एक इंसान के कितने रूप बनाये.
धर्म की आग ने ना जाने कितने घर है जलाए,
देश है हमारा जग से प्यारा,
जात-पात ने कर दिया जिसका बटवारा,
ख़त्म हो जाएगी ये ''मैं'' की लड़ाई,
अगर जात-पात की मिट जाए ये बुराई.
-: मुकुल प्रताप सिंह
500/3 प्रेम नगर
गुडगाँव
09911390089
- Author: mukulraghav ( Offline)
- Published: November 19th, 2010 14:17
- Comment from author about the poem: i have written this small poem against caste, there is many problem create in caste and religion.hope my poem contain truth of reality. thank a lot
- Category: Unclassified
- Views: 120
- Users favorite of this poem: Cheeky Missy
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